मनन ही मन का सर्वोपरि गुण : राजगुरु मनोज अग्निहोत्री
मानव मन में सोचने, विचारने व समझने की शक्ति का घनघोर पतन हो रहा है। कहने का मतलब हमारी सोचने और समझने की शक्ति क्रमशः क्षीण होती जा रही है। हमारे विचार निष्क्रिय व निस्तेज होते जा रहे हैं, क्योंकि हम न तो स्वयं ही सोचते और न ही चिंतन करते। बल्कि संचार माध्यम से केवल तैयार विचारों का आयात करते हैं। जबकि मनन ही मन का सर्वोपरि गुण है। मन की मननशीलता एवं विचारशीलता ही उसकी नैसर्गिक विशेषता है। परंतु विज्ञान ने इस नैसर्गिकता का हनन करके विषकुम्भ पैदा किया है, जिसे न पिया ही जा रहा है और न छोड़ा। सही एवं गलत के बीच निर्णय करने की भेददृष्टि समाप्त हो गई है।इसी कारण हमारी कभी की नापसंद आज सबसे बड़ी पसंद बन गई है और नासमझी सबसे बड़ी समझ।
*”हम विचारहीन हो गए”*
हम विचारहीन होकर किसी से भी प्रभावित व आकर्षित हो रहे हैं। जिस कारण हमने अपनी समृद्ध सनातन संस्कृति को भुला दिया जो हमे सोचने, विचारने तथा चिंतन की कला सिखाती थी और उपयुक्त, उत्कृष्ट व श्रेष्ठ को चुनाव करने की क्षमता देती थी। लेकिन आज हमें हमारी जीवनदायनी संस्कृति की अपेक्षा भोग-उपभोग की संस्कृति अच्छी लग रही है। जीवन को अधिकतम रूप में कैसे भोग लिया जाए। उपभोक्तावादी संस्कृति का यही मूलमंत्र रह गया है। जबकि मानव जीवन महान उपलब्धि एवं दैवीय वरदान है, जिसका उपयोग भोग में नहीं बल्कि सदुपयोग श्रेष्ठ कार्यों में होना चाहिए। मानव जीवन की गरिमापूर्ण सोच व विचार में ही हमारा वैचारिक एवं आत्मिक विकास संभव है। तभी विचारहीनता के संकट से मुक्ति पाई जा सकती है।

