कानून का जाल: बराबरी का भ्रम और हकीकत

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कानून का जाल: बराबरी का भ्रम और हकीकत

गौरव रक्षक/प्रियला शर्मा

“कानून सबके लिए बराबर है” – यह वाक्य दशकों से हमारे लोकतंत्र की नींव और विश्वास की बुनियाद माना जाता रहा है। लेकिन जब हम ज़मीनी सच्चाई को देखते हैं तो यह बात अक्सर खोखली लगती है। समाज में फैली असमानता, भ्रष्टाचार और शक्तिशाली लोगों का दबदबा इस धारणा को चुनौती देता है। सच तो यह है कि कानून कई बार उस मकड़ी के जाले जैसा प्रतीत होता है, जिसमें छोटे कीड़े-मकोड़े तो फंस जाते हैं लेकिन बड़े जानवर आसानी से इसे फाड़कर निकल जाते हैं।

गरीब पर सख़्ती, अमीर पर नरमी

आज के दौर में अनगिनत उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहां एक मामूली अपराध में गरीब और कमजोर व्यक्ति वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे सड़ता है, जबकि बड़ी आर्थिक और राजनीतिक हैसियत वाले लोग संगीन अपराधों में शामिल होने के बावजूद आसानी से जमानत पा लेते हैं या सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं।
• सड़क पर बिना हेलमेट पकड़े जाने वाला मजदूर तुरंत चालान भर देता है, जबकि बड़ी गाड़ी में घूमने वाला रसूखदार व्यक्ति अक्सर पुलिस से फोन पर बात करवा कर बच निकलता है।
• एक मामूली चोर जेल की सजा काटता है, लेकिन करोड़ों का घोटाला करने वाला आराम से विदेश भाग जाता है।

न्याय की देरी भी अन्याय है

हमारे न्यायालयों में करोड़ों मुकदमे वर्षों से लंबित पड़े हैं। एक आम आदमी के लिए केस लड़ना सिर्फ आर्थिक बोझ ही नहीं बल्कि मानसिक और सामाजिक बोझ भी बन जाता है। “न्याय में देरी, न्याय से इनकार” (Justice delayed is justice denied) – यह कथन भारतीय न्याय प्रणाली पर कहीं ज्यादा सटीक बैठता है।

कानून और सत्ता का गठजोड़

यह भी कटु सत्य है कि कई बार कानून का इस्तेमाल न्याय के लिए नहीं बल्कि सत्ता और ताकत बचाने के लिए होता है। कई बार कड़े कानून भी सिर्फ गरीब और कमजोर पर लागू होते हैं, जबकि वही कानून ताकतवरों के लिए लचीला बन जाता है। यही कारण है कि लोगों के बीच विश्वास टूटता है और वे कानून को “बराबरी का प्रतीक” न मानकर “पक्षपाती औजार” मानने लगते हैं।

समाधान की ओर कदम

यदि हमें कानून की असली गरिमा और बराबरी की भावना स्थापित करनी है, तो कुछ ठोस कदम उठाने होंगे—
1. तेज़ और पारदर्शी न्याय प्रणाली: फास्ट-ट्रैक अदालतों और तकनीक का व्यापक इस्तेमाल।
2. समान सज़ा का सिद्धांत: अपराधी की हैसियत, पद या संपत्ति को ध्यान में रखे बिना समान दंड।
3. पुलिस और जांच एजेंसियों का स्वतंत्र होना: ताकि सत्ता या दबाव से प्रभावित न हों।
4. जनजागरूकता और कानूनी सहायता: गरीब और कमजोर तबके को मुफ्त और प्रभावी कानूनी मदद मिलना।
हमारा मानना है कि
कानून की ताकत तभी सार्थक होगी जब हर नागरिक यह महसूस करे कि वह सचमुच सबके लिए बराबर है। अन्यथा यह सिर्फ एक खूबसूरत नारा बनकर रह जाएगा। अगर मकड़ी का जाल सचमुच कानून का प्रतीक है, तो अब समय आ गया है कि इसे इतना मजबूत बनाया जाए कि कोई बड़ा जानवर भी इसे फाड़कर न निकल सके।

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